'पुत्र प्रेम' कहानी प्रेमचंद द्वारा विश्चित हैं। उनका जन्म वाराणसी के निकट लमही ग्राम में 31 जुलाई सन् 1880 को हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपतराय पृथा परंतु हिन्दी मे लेखन के लिए वे प्रेमचंद नाम का प्रयोग करते थे।
यह कहानी धनी वकील, बाबू चैतन्यदादा के इर्द- निवि इनके दो पुत्र थे - प्रभुदास और शिवदास। चैतन्यदास को अपने बड़े बेटे प्रभुदास से अधिक स्नेह था और वे उसे इंग्लैंड भेजना चाहते थे परंतु प्रभुदास को बी.ए. की परीक्षा के बाद ही जबर हो गया।
Character of चैतन्यदास:
स्वार्थी दिखाते की भावना spend a lot on अंतिम संस्कारा परिस्थिति के साथ बदलना शीषर्क उद्देश्य प्रधान है।
आ. धरती हमे कितना देती है
कवि परियम
सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के सुपमान कति कह जाते है। इनकी काव्य रचनाओ मे प्रकृति के सुंदरता का अभूतपूर्व चित्रण हुआ है। छायावादी कवि थे। इनके काव्य में प्रकृति का प्रतिकात्मक प्रयोग हुआ है। इनके काव्य से गांधीदर्शन का प्रभाव है। इतकी भाषा अलंकारों से युक्त हैं और संस्कृत निश्त का प्रयोग देखा जा सकता है। पंत जी कि कुछ प्रमुख रचनाए है "विणा पलव, "ग्रंथी," "गुंजन, अगवानी, युगान इतयादि । पत जी वे कुछ नाटक, कहानी, और निबंध भी लिखते हैं। इन्हें अनेक प्रकारितोषिक और सम्मान भी प्राप्त हुए हैं।
इनका सन् 1900 मे अन्गोड़ा के निकट कौसानी ग्रात मे हुआ था। इनको नवपन का बाज गोसाई तते था। सारांश
'आ धरती कितना देती हैं। कविता पंत जी की उत्तकृष्ट रचनाओं से से है। धरती माँ स्वरूप है। वह "सुजला, सुफला, शस्य, श्यामला हैं यह जन्म देने वाली है यह पोषण करने वाली है इसिलिए कवि ने इसे "रत्न प्रसविनी है। कवि पंत ने प्रकृति के द्वारा माँ माता का संदेश दिया है।
मानवता
પા मे छिप के पैसे
कति अपने बचपन की एक घटना का समरण करते हुए कहते कि उन्होने सबसे छिपकर घर के आंगन मे कुछ पैसे बोए थे। 'मैंनें, बोए थे?' और यह कलपना की थी कि पैसो के पेड़ लगेंगे और "फंसने खनकेंगी है और इसके साथ-साथ धनी सेठ बन जाएगें। पर रखा असंभव था इस कारण धरती पर "एक न अंकुर फूटा। कवि के सपने चूर चूर हो गए। वे हताश हुए पर फिर भी कलपना के लोभ मे पैसों के पैड़ो की राह देखते रहे। अबोधता मे किया गया यह कार्य कृष्णा और तृष्णा से प्रेरित था। लिए कवि के शब्दों में " मै हताषक हो बात ज्जाँरता रहा दिनों तक।
नोभवश किया गया यह कार्य भयफल स्टा परंतु पचास वर्ष के उम्र मे आकर कवि ने यह महसूस किया कि "मैंने गलत बीज बोए थे।" जीवन के कई उतार-चढ़ाव देखने के बाद कवि आज इस ही आंगन मे खडे होते है और उन्हे एहसास होता हैं कि उनसे ऋऋऋतुओं के समान बदलाव आए।
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कितने ही वसंत बीत गए। कितने ही पतपुर बीत गए। कितने ही वृक्षा ने अपने पत्ती को त्याग नवीन पत्ते धारण किए हुन ऋतुओं के आवागमन का पता ही नहीं चला 1 तपतपाती गरमी आई और गार्ड 1 वर्ष के सहमे शरद की अंकुशहर और ट्रैक्त की कंपाने वाली
उन्होंने ठंड भी बैन नही जैसे वसंत, वे पतझर को के दुखदाई समय को महसूस किया। ग्रीष्म की गरमी में तपे वर्षा के कठिनाई का सामना किया, शरद के मौसम का आनंद उठाया और शरत के ठंडे मौसम में कपकपाहो। इस प्रकार कवि के जीवन आए और व्यतीत होता गया।
पचास वर्ष के उम्र में आकर जब वह दुवारा इरा आंगन से बड़े होते है और आकाश मे धने वैगनी वादन को देखते तो उनके मब से "पुनः लालसा जागृत होती है। वे जिज्ञासा वर्ष आंगन मे जमीन को ऊँगली से खुरेदकर कुछ सेम के बीज वो देते हैं। माबो उन्होने धरती के भाचल में बहुमुल्य रत्न बांध दिए हो। इस सामान्य घटना को कति भूल और बात इतनी साधारण थी की इसे भुलना स्वाभाविक था, किंतु, एक दिन जब मैं संध्या मे आँगन मे टहल रहा था - ऐसे ही एक दिन आगन मे टहलते हुए उन्होने जो देखा उसे देखकर उनका दुर्गा मन खुशियों से भर गया और उन्हें माइचर्न थी हुआ। आगंन के कोने मे कई नए पौधे उग आहे, जिन्हें देखकर कवि को प्रतीत हुआ मानो "छोटी-छोटी छाता ताने खड़े हुए है" उपन्या अलंकार का प्रयोग कर कवि ने इब + अलग अलग प्रकार से किया गया है। उन्हें लगता है कि 25 विजय पताके हैं तो कभी इनको लगता है यह सुर्ख़ियों मे फैली बन्दी सोभियाँ है
वर्णन
मानो चिड़ियों के बच्चे जो अभी-अभी अंडो से निकले है और उठने के लिए आतुर है।
छल गर्य गर्छ अनधिकृत
धीरे-धीरे गए, नरहने पौधे इस प्रकार बढ़ने लगे मानो "नन्हेंने नाते पैर पटक, बढ़ती जाती हैं। अथार्थ इब पौधो को बढ़ते देख कवि को देगें प्रतित हो रहा था मानो नन्हते सैनिकों का सई से आगे बह रहा हो। दिन बीतते गए मेरा के चेंडे में पतियाँ आने लगी। पूरे अपांग में, "मरखवाली चंढोते हैं। उनसे देखकर ना आगंन प्रतीत हो रहा था मानो हरे-भरे झरने हो। कवि इनके ५. वे इस प्रकार विश्व गए मनो ता
प
विकास को आश्चर्य देख रहे थे और इसी प्रकार वंश की वृदधी होती हैं। 89 વોર્ડો समय के साथ साथ, असंख्य फूल ल्यो जिनकी
तुलना की कभी तारों से तो कभी "हागो से निपते लहरी श्यामल बतरों पर इस प्रकार और कई उपकाओं "का जैसे "चोटी के मोटी आँचल के छतों" से" किया गया हैं। धीरे-धीरे यह फूल फलियों में परिर्खेत हुई उन असंख्य संग की फलियो को देखकर कवि के विचारों को परिवर्तन आया की "यह धरती कितना देती हैं। बस धरती को अपने पुत्रों से प्यार है।
इस घटना के उपसंग कति ने यह कहसूस किया की जिस धरती को उन्होने बचपन मे बंजर का था वह वास्तव है में 'रून प्रजविनि हैं। कवि के विचारों में इस बरती है मे यदि सही बीज बौए इसका फल यहाँ पर रहने वाले सभी निवासियों को मिलेगा। इस धरती में 2.0 यदि ऐसे बीज बोए है जिनसे मानवता की सीख मिले। परिश्रम के महत्वक महत्व को समझाना है ताकी इस धरती पर रहने वाले सभी प्राणी सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकें। अतः कविता के अंतिम पंक्तियों में कवि ने सीव कि हम जैसा बोते है वैसे ही पाते हैं। "हम जैसा बौएँगे वैसा ही पाएँगे।"
कविता में कवि ने उपाए कैसे इस्तमाल किया कवि परिचय, अलंकार
छुटपन मेडिया पं। बाड से
रत न अंत आए तो हम तो तक जोड़ता रखा दिनो तका
किंतु,
सखादितुना संख्या को गांगल मे तहत रूप या
"होता होता बताता। सरे हुए है विजय पताकांड: लगियों ने केला नहीं हशै नयाँ विदेशो के
'नन्हे बात 1. पाच, नाही जी है। "मखमली चंद्रोते" भागों से लिपते लहरी श्यामल लतरों पर"
" चोटी के मोटी से, आँचल के बूटो से" "हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।"
शीर्षक की कार्यकता
पुत्र प्रेस
पुत्र प्रेम कहाली प्रेमचंद द्वारा बचकत है जिन्हें आदर्श निचुरखी, यथार्थवादी रचनाकार कहा जाता है। प्रस्तुत कहानी के माध्यम से प्रेमचंद से मानव हृदय की दुर्वबताओं 8 स्तंभ असतेदनाओ का अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रांकन किया है। इस कहाने के प्रमुख्य पात्र चेतव्यदास हैं जिनके द्वारा कहानीकार ने एक पिता के उदय के दबदव एवम पीढ़ा का अत्यंत
हृदयस्पर्शी वणारी किया है। पुत्र प्रेम कहानी का शर्षिक
सरल चंक्षिप्त एवंम सुबोध हैं। कहानी का संक्षिक व्यंग प्रधान है। कहानी के मुख्य पात्र चैकायदास एक महत्वकांशी पिता है जिन्हें अपने दोनो पुत्र शिवदास और प्रभुदास से अत्यंत प्रेम है परंतु उनका प्रेम परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तित होता रखता है। प्रभुवास के बीमार होने पर चैतन्यदास के निलय बदन जाते है और उनकी स्वार्थपरक मानसिकता से पाठक परिचित होते है। उनके लिए मानवीय संबंधो का महत्व स्पष्ट रूप से उभरकर आता है अथार्थ पुत्र प्रेम से अधिक महत्वकाक्षा उनके जीवन का लक्ष्य है। इस प्रकार कहानी के काँड पर पाठकों के सैन जिज्ञासा उत्पन्न होती है की पीता के निषर्य से प्रभुवास का क्या होता अतः कहानी पाठकों,
का शीर्षक पुत्र ॐ जिज्ञासा उत्पन्न सिद्धास के प्रति उनका प्रेम भी स्वार्थ से प्रेरित करता है। है। चहलमदास को जब यह ज्ञात होता है की प्रयुदास के तबियत मे सुधार होना असंभव है तब वे बिराश हो जाते है और एवा हृदयहीन मनुष्य के समान उसकी चिकितसा
पर खर्च करना व्यर्थ समझते है। और कहानी के इस सोए पर उनका सारा ध्यान और पुत्र प्रेम अपने छोटे बैते शीत पर केंद्रिन होता है। इस प्रकार कहानी का शीर्षक प्रेम एक व्यंग प्रतीत होता है। ( भौतिकवादी गुस्तों के लिए चेतन्यदास अपने पुत्र
प्रेम को समय के अनुसार परिविर्तित करते रहते हैं शिवदास को इंगलैंड भेजने के बाद जब वे घर लौटते है और उसी के एक सप्तहा बन्द प्रभु की मृत्यु हो जाती है तब चैनयदास अत्मा
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पीक्षित क्लानि से प्रेरित होते हैं "उस विश्विता अवस्था में उनके मन मे यह कलपना प्रभुदास स्वस्थ "हो जाता।" सूत पुत्र की चिता च जलाते हुए उनके सब मे पच्छाताप हो रहा था और उन्हे अपनी ह्रदयहीनता पर हो रहा था। ऐसे क्षण मे उनकी पुख दुलाकात एक आदर्श इतक से होती है जिसने अपने वृद्ध पिता के चिक्तिया के लिए अपना मरवरत लुटा दिया। उसके शब्द
इसी माया मोद का नाम जिन्दगानी है नहीं तो इसमे क्या रखा है? धन से प्यारी जान "जान प्यारी इमान" यह बाते उनके हृदय यह बाते तीर के समान अबती है और वे अपने आपको कोसते हैं। इस तरह कहानी का अंत चेन के हृदय परिवर्तन से होती है। वे अपने मब की ज्ञाती के लिए प्रभु की अल्येष्टि संस्कार मे हजारों रुपए खर्च करते है। इस प्रकार कहाली का शीर्षक पुत्रप्रेम सार्थक है।
सणिकर्णिका घाट मणिकर्णिका घाट मणिकर्णिका घाट अन्त्येष्टि अमेतिम संस्कार अन्त्येष्टि मणिकर्णिका घाट
जिंदगानी इसी मोहमाया का नाम जिन्दगी है,। तो इसमें क्या रखा है नहीं
धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान इसी मोह माया का नाम जिंदगानी है, नहीं तो इसमें क्या रखा है
* धन से प्यारी जान जान से प्यारा ईमान
Character of चैन्यवास
भी बैंको मे लगा कपल तथा जमीन जायदान थे ये सब उनके
बाबू चैतन्यदास वकील थे तथा दो-तीन गाँवो की जन्मींदानी भी थी। उन्होने केवल अर्थशास्त्र पढ़ा ही नहीं था इनकी अपितु • व्यवहारिक जीवन से जम्मू भी कर थे थे। उनके पास जितनी अर्थशास्त्र के ज्ञान का ही परिणाम था। ये मितव्ययी थे तथा किसी काम में खर्च करने से पहले सोचते थे कि इसमें कपक लगाना कितना लाभदायक होगा। इस पर सोच-विचार कर के वे खर्च करने या न करने का फैसला करते थे। बेखक के शब्दो में - "जब कोई सखी सामने आता तो उनके काम से स्वाभावतः प्रश्न होता था- उसमे मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का ? 'व्यर्थ को वे विष के समान समझते थे T चैतन्यदास के दो पुत्र थे प्रभुदास और शिवदास। दे दोनो से प्रेम करते थे परंतु प्रभुदास जे को अधिक प्यार करते थे। वे उसे विदेश भेजकर बैरिस्टर बनाना चाहते थे परंतु होनी को यह मंजूर नही था। बी.ए पास करते ही प्रयुदास को to ज्वर आने लगा जो शैक्टरों के दवा से भी ठीक नहीं हो रही थी। अन्त मे डॉक्टरों ने चैतन्यदास को बताया कि उसे ट्यूबरक्लोसिस था और कुछ महिने से वह ठीक तो हो जाएगा परंतु, मानसिक श्रम के योग्य नहीं रहेगा। पूरी तरह स्वास्थ होने के लिए उसे इटली के सेनेटोरियम में ने जाने की सलाह दी परंतु इस पर भी पूरी तरह शंका स्वस्थ होने की शंका थी। यह सुनकर चैतन्यदास निराश होकर कहते हैं- " तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।" इस उदहारण से स्पष्ट होता है कि उन्हें पुत्र से प्रेम नहीं बल्कि अपने धन की चिन्ता थी। वह बहुत महत्वाकांक्षी थे। रुपए होने के बाद भी वे अपने पुत्र के बारे मे नहीं बलिको 7. मन अपने धन के बारे में सोच रहे थे।
एक स्थान पर वह कहते हैं " मैं भी केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का दास नहीं कर सकता। अपने पुत्र के इलाज के लिए, इस प्रकार दो बार सोचने ले, चैतन्यदास को कर्थी धन के और स्वार्थ स 1 दिखाई देता है। भन्त में प्रभुदास परलोक सिधार जाता है। इस समय
चैतन्यदास को अपनी शुभ पर पश्चाताप होता है। उन्हे मनाली होती हैं और वे कहते हैं-"हाथ: मैने तीन हजार का मुँह देखा और पुत्र-रत्न को हाथ से खो दिया। अतः यह स्पष्ट होता है कि चैतन्यदास एक हदयहीन, आत्मशून्य व भौतिकतावादी व्यक्ति थे। पुत्र के प्रति प्रेम होते हुए भी उन्होने अपने पुत्र प्रेम को दफन कर दिया जिसके लिए उन्हें पुत्र कल को सोकर पश्चाताप के सिवाय कुछ हाथ न आया
नेशनल और जागरुक परिवार को भली-भाली पालन - पोषण करते है। दोनों पुत्र के शिक्षा के लिए उचित प्रबन्ध करते हैं और यह- तरह के योजना बौगार बनते है
अवसरवादी, जय दाबक सोमार पढ़ पढ़ते है, तो बारा प्रेम कोक्करा यो हो बेलुन से एकता
भावनाओं को, महारा वह ऐत
चैतब्यदास को नाक मुजा मे उपरणा को बचाता का
2. जी भी लीड सर्च अपने बाल तो उनके सब की बतभावतः प्रश्न होता था इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य - पुरुष का? 'पार्थ' की वे विष के समान मानते थे।
" तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया
केवल
मै, भावुकता के फेर में आकर पककर धन का द्वारा नही कर सकत
1 मैंने तीन हजार का मुँह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया।"
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